Friday, October 22, 2010

क्या रिश्ता है तेरा मेरा.....

तुम हो जैसे स्वर्ण मृग,
मैं हूँ कागा काठ का।

तुम रहने वाली महलों की ,
मैं नहीं तुम्हारे ठाठ का।

तुम एक अछूती सी कोमल कन्या,
मैं एक बुड्ढा साठ का।

तुम शौक़ीन पकवानों की,
मैं गलीनुक्कर के चाट का।

क्या रिश्ता है तेरा मेरा,
जैसे अनपढ़ और एक पाठ का।


थोड़ा सा भटका सा है दिल ,
थोड़ा सा तनहा है आज।

नहीं तुमसे नहीं मैं ,
खुद से हूँ नाराज़ ।

प्यास मेरे दिल की कैसी ,
मनोदशा कैसी मेरी ।

अँधेरे घुप कमरे में दुंन्दू
रौशनी की लौ कोई।

घड़ी की सुइयाँ भी चुभे हैं,
भारी हर पल अभी।

सुने रेगिस्तान में जैसे ,
अकेला मैं हूँ कहीं।

बादलों को क्या पता,
धरती की चाहत है क्या।

बरखा की बूंदें क्या जाने,
अपनी आहट का मज़ा।

तुम क्या समझोगे मुझे अब,
खुद ही मैं अनजान हूँ।

क्या करूं क्या न करूं,
खुद से ही अब हैरान हूँ।

जानता हूँ मैं कहीं,
पर शायद मानता नहीं।

समय चक्र है यह तो,
गुजर जायेगा यूँ ही।

फिर आएँगी बरखा बूदें,
फिर सजेंगे नए साज।

नहीं तुमसे नहीं मैं ,
खुद से हूँ नाराज़