Sunday, March 24, 2013

दहेज़ 
====

बेटी की  शादी  में काफी  खुश  थे श्रीमान ,
तभी उन्हें अचानक अचानक आया ध्यान ,
लड़के वालों की आठ लाख की मांग ,
गुणों से ज्यादा दहेज़ में थी जिनकी शान !!

दूर आती बारात का कोलाहल पड़ा सुनाई ,
श्रीमान के माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयीं ,
अगर उन्होंने सारी मांगें पूरी नहीं की 
तो बारात वापस लौट जाएगी  और 
अगर शादी  हो भी गयी 
तो उनकी बेटी जला दी जाएगी !!

Saturday, February 16, 2013

कल

एक एक पल में लाखों पल हैं ,
हर लम्हे में लाखों यादें !

होंगे कुछ हमने जो कहें हों ,
और बहुत से अनकहे  वादे !

कल का क्या है , आएगा ही ,
दो टूक कर ले आज की बातें !

याद करोगे इनं ही पलों को ,
अपने संग जो तुमने काटे !


Tuesday, August 9, 2011

रात

गयी रात फिर से तुझे
नींद ना आई है।
कुछ तो हुआ है
जो तू सो ना पाई है॥

शायद रात की ख़ामोशी ने
फिर तुझे जगाया है।

या फिर शायद ये तेरे
मन की बेचैनी का साया है॥

मत बोल के बीते पल
तुझे अब याद नहीं आते।
तुने जो कुछ किया वोह तुझे
और नहीं सताते॥

मेरा अब तुझसे
बस एक ही सवाल है।
बना बैठा जो मेरे
जी का जंजाल है॥

क्यूँ आती है छुठे हाथ तुम
फिर से थामने।
शांत पड़े पानी में
फिर से कंकड़ मारने॥

क्या पाती है तू फिर से
सोये अरमान जगा के।
फिर चली जाती है तू क्यूँ
भोर के आते॥

Wednesday, July 27, 2011

काँटों से है भरा पथ तेरा,
स्वागत करती हैं हर मोड़ पर बाधाएं।
ठोकरों के लिए प्रस्तुत हैं पत्थर,
झाड-लताएं जैसे पैरों को खींच खाएं।।


रात्री का गुमनाम अँधेरा,
सन सन करती हवाएं।
नंगे पाँव , खुले बदन चल रहा राही,
सर्द मौसम लहू को जमाएं।।


दौड़ते चलते थकते रुकते,
गिरते पड़ते उठते झुकते।
अग्रसर रह निज कस्ठ-पथ पे,
अब मौत भी कदम तेरे न रोक पाए।।

उठा मुख देख दूर क्षितिज पर
सिन्दूर-सरीखी लालिमा है बिखरी आज।
दर्शाती जन्म नए आशा-सूर्य का
दमन कर रहा जो रात्रि-राज्य।।


बन चुके हैं पर्वत पाँव तेरे,
रिस रही लालिमा फटी एड़ियों से।
वोह देख सामने , वही है तेरी मंजिल,
निकला था जिसके लिए तू घर से॥

Tuesday, December 21, 2010

कुछ देर ठहरो

कहाँ को चला था,कहाँ आया हूँ मैं,
चाहा था क्या और क्या पाया हूँ मैं।

नहीं मिलता कोई अपना कभी भी,
सभी हैं पराये जहाँ आया हूँ मैं।

मुझे कोई समझा नहीं तो हुआ क्या,
नहीं खुद को ही समझ पाया हूँ मैं।

कुछ देर ठहरो तो फिर घाव देना,
अभी तो ज़रा सा संभल पाया हूँ मैं ।

Friday, October 22, 2010

क्या रिश्ता है तेरा मेरा.....

तुम हो जैसे स्वर्ण मृग,
मैं हूँ कागा काठ का।

तुम रहने वाली महलों की ,
मैं नहीं तुम्हारे ठाठ का।

तुम एक अछूती सी कोमल कन्या,
मैं एक बुड्ढा साठ का।

तुम शौक़ीन पकवानों की,
मैं गलीनुक्कर के चाट का।

क्या रिश्ता है तेरा मेरा,
जैसे अनपढ़ और एक पाठ का।


थोड़ा सा भटका सा है दिल ,
थोड़ा सा तनहा है आज।

नहीं तुमसे नहीं मैं ,
खुद से हूँ नाराज़ ।

प्यास मेरे दिल की कैसी ,
मनोदशा कैसी मेरी ।

अँधेरे घुप कमरे में दुंन्दू
रौशनी की लौ कोई।

घड़ी की सुइयाँ भी चुभे हैं,
भारी हर पल अभी।

सुने रेगिस्तान में जैसे ,
अकेला मैं हूँ कहीं।

बादलों को क्या पता,
धरती की चाहत है क्या।

बरखा की बूंदें क्या जाने,
अपनी आहट का मज़ा।

तुम क्या समझोगे मुझे अब,
खुद ही मैं अनजान हूँ।

क्या करूं क्या न करूं,
खुद से ही अब हैरान हूँ।

जानता हूँ मैं कहीं,
पर शायद मानता नहीं।

समय चक्र है यह तो,
गुजर जायेगा यूँ ही।

फिर आएँगी बरखा बूदें,
फिर सजेंगे नए साज।

नहीं तुमसे नहीं मैं ,
खुद से हूँ नाराज़